‘छन्द’ क्या होते हैं?
छन्द की परिभाषा कविता की स्वाभाविक गति के नियमबद्ध रूप हैं। सामान्य धारणा के अनुसार-“जातीय संगीत और भाषचत्ति के आधार पर निर्मित लयादर्श की आवृत्ति को छन्द कहते हैं।” “हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार “अक्षर, ‘अक्षरों‘ की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति,गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना ‘छन्द‘ कहलाती है।” छन्द में निश्चित मात्रा या वर्ण की गणना होती है। छन्द के आदि आचार्य पिंगल हैं। इसी से छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र‘ भी कहते हैं।
चरण क्या होते हैं?
चरण की परिभाषा – प्रत्येक छन्द चरणों में विभाजित होता है। इनको पद या पाद कहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य चरणों पर चलता है, उसी प्रकार कविता भी चरणों पर चलती है। एक छन्द में प्रायः चार चरण होते हैं, जो सामान्यतः चार पंक्तियों में लिखे जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं छन्दों;
जैसे-छप्पय, कुण्डलिया आदि में छह चरण होते हैं।
वर्ण और मात्रा क्या होते हैं?
मुख से निकलनेवाली ध्वनि को सूचित करने के लिए निश्चित किए गए चिह्न वर्ण‘ कहलाते हैं। वर्ण दो प्रकार के होते हैं-
हस्व (लघु) तथा दीर्घ (गुरु)।
वर्णों की गणना करते समय वर्ण चाहे लघु हो अथवा गुरु, उसे एक ही माना जाता है;
यथा—’रम’, ‘राम’, ‘रामा’ तीनों शब्दों में दो-दो वर्ण हैं।
मात्रा से अभिप्राय उच्चारण के समय की मात्रा से है।
लघु – लघु वर्ण एकमात्रिक होता है; यथा-अ, इ, उ, क, कि, कु। संयुक्ताक्षर, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण, ह्रस्त मात्राओं से युक्त सभी वर्ण लघु वर्ण होते हैं। गुरु के उच्चारण में लघु के उच्चारण की अपेक्षा दूना समय लगता है, इसलिए मात्राओं की जहाँ गणना होती है, वहाँ लघु की एक मात्रा होती है और गुरु की दो मात्राएँ होती हैं। लघु का संकेत खड़ी रेखा ‘।‘ और गुरु का संकेत वक्र रेखा ‘S ‘ होता है। लघु के लिए ‘ल‘ और गुरु के लिए ‘ग‘ के संकेत का भी प्रयोग होता है।
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गुरु – आगे लिखे वर्ण गुरु माने जाते हैं
(क) दीर्घ स्वरोंवाले (आ, ई, ऊ ए ऐ ओ, औ) वर्ण।
(ख) संयुक्त वर्ण से पूर्व के वर्ण।
(ग) अनुस्वारवाले वर्ण (चन्द्रबिन्दवाले वर्ण लघ ही माने जाते हैं)।
(घ) विसर्गवाले वर्ण; जैसे—’अन्त:करण’ में ‘त:’।
(ड़) कभी कभी पाद की पूर्ति के लिए अन्त का लघ वर्ण भी गुरु मान लिया जाता है।
*हलन्त वर्ण गिने नहीं जाते. किन्त उनके पर्व का वर्ण गुरु हो जाता है।*
विशेष– कहीं कही मात्राओं की गणना में चरण की पूर्ति के लिए उच्चारण को दृष्टि में रखकर लघु को गुरु और गुरु को लघु रूप में माना जाता है।
गण क्या होते हैं?
गण – तीन वर्णो के लघुगुरु क्रम के अनुसार उनके योग को गण कहते हैं। गणों की संख्या आठ है
यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण।
गणसूत्र – गणों को समझने के लिए निम्नलिखित सूत्र उपयोगी है “यमाताराजभानसलगा” इस सूत्र से आठों गणों का स्वरूप ज्ञात हो जाता है; यथा
गण का नाम | संकेत | सूत्रगत उदाहरण | सार्थक उदाहरण |
यगण | । ऽ ऽ | यमाता | यशोदा |
मगण | ऽ ऽ ऽ | मातारा | मायावी |
तगण | ऽ ऽ । | ताराज | तालाब |
रगण | ऽ । ऽ | राजभा | रामजी |
जगण | । ऽ । | जभान | जलेश |
भगण | ऽ । । | भानस | भारत |
नगण | । । । | नसल | नगर |
सगण | । । ऽ | सलगा | सरिता |
छन्द के प्रकार
मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं
- मात्रिक
- वर्णवता
मात्रिक छन्द
मात्रिक छन्द की परिभाषा- मात्रिक छन्दों में केवल मात्राओं की व्यवस्था होती है. वर्गों के लघु और गुरु के क्रम का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। इन छन्दों के प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है। मात्रिक छन्द तीन प्रकार के होते हैं-
- सम
- अर्द्धसम
- विषम
सम, अर्द्धसम और विषम
जिन छन्दों के चारों चरणों की मात्राएँ या वर्ण एक से हों वे ‘सम‘ कहलाते हैं;
जैसे–चौपाई, इन्द्रवज्रा आदि।
जिनमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों की मात्राओं और वर्गों में समता हो वे ‘अर्द्धसम‘ कहलाते है. जैसे—दोहा. सोरठा आदि।
जिन छन्दों में चार से अधिक (छह) चरण हों और वे एक से न हों, वे ‘विषम’ कहलाते हैं, जैसे-छप्पय और कुण्डलिया।
गति ,
पढ़ते समय कविता के स्पष्ट सुखद प्रवाह को ‘गति‘ कहते हैं।
यति
छन्दों में विराम या रुकने के स्थलों को ‘यति‘ कहते हैं।
चौपाई क्या होती हैं?
चौपाई की परिभाषा- सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। अंत में जगण और तगण के प्रयोग का निषेध है।
चौपाई के उदाहरण –
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥ होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥ |
– तुलसी : रामचरितमानस
इस छन्द के प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ हैं; अतः यह चौपाई ‘छन्द’ है।
दोहा क्या होते हैं?
दोहा की परिभाषा- यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए तथा सम चरणों के अन्त में गुरु लघु होना चाहिए।
दोहा के उदाहरण –
लसत मंजु मुनि मंडली, मध्य सीय रघुचंदु। ग्यान सभा तनु जनु धरें, भगति सच्चिदानन्दु॥ |
—तुलसी : रामचरितमानस
इस पद्य के पहले और तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं और दूसरे तथा चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ हैं; अतः यह ‘छन्द’ दोहा है।
सोरठा क्या होते हैं?
सोरठा की परिभाषा- यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम और तृतीय चरण में ११-११ मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। पहले और तीसरे चरण के अन्त में गुरु लघु आते हैं और कहीं-कहीं तुक भी मिलती है। यह दोहा का ‘उलटा’ होता है।
सोरठा के उदाहरण-
नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज नयन। करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर सयन॥ |
-तुलसी : रामचरितमानस
इस पद्य के प्रथम और तृतीय चरण में ११-११ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं अतः अतः ये ‘छन्द ‘सोरठा‘ है।
रोला क्या होते हैं?
रोला की परिभाषा- यह सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। ११ और १३ मात्राओं पर यति होती है।
रोला के उदाहरण-
कोउ पापिह पंचत्व प्राप्त सुनि जमगन धावत। बनि बनि बावन वीर बढत चौचंद मचावत। पै तकि ताकी लोथ त्रिपथगा के तट लावत । नौ द्वै, ग्यारह होत तीन पाँचहिं बिसरावत॥ |
-भारतेन्दु : गंगावतरण
कुण्डलिया क्या होते हैं?
कुण्डलिया की परिभाषा- इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ हैं। ११.१३ पर यति है; अतः यह छन्द रोला है।
यह विषम मात्रिक छन्द है। इसमें छह चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। आदि में एक दोहा और बाद में एक रोला जोड़कर कुण्डलिया छन्द बनता है। ये दोनों छन्द मानो कुण्डली रूप में एक-दूसरे से गुंथे रहते हैं, इसलिए इसे ‘कुण्डलिया‘ छन्द कहते हैं। जिस शब्द से इस छन्द का प्रारम्भ होता है, उसी से इसका अन्त भी होता है। दोहे का चौथा चरण रोला के प्रथम चरण का भाग होकर आता है।
कुण्डलिया के उदाहरण-
साईं बैर न कीजिए गुरु पण्डित कवि यार। बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार॥ यज्ञ करावन हार राजमंत्री जो होई। विप्र पड़ोसी वैद्य आपुको तपै रसोई॥ कह गिरिधर कविराय जुगन सों यह चलि आई। इन तेरह को तरह दिए बनि आवै साईं। |
इस पद्य के प्रथम एवं द्वितीय चरण ‘दोहा’ हैं तथा आगे के चार चरण ‘रोला’ हैं। दोनों के कण्डलित होने से कुण्डलिया छन्द का निर्माण हुआ है।
हरिगीतिका क्या होते हैं?
हरिगीतिका की परिभाषा- यह सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं। १६ और १२ मात्राओं पर यति होती है। प्रत्येक चरण के अन्त में रगण आना आवश्यक है।
खग-वृन्द सोता है अत: कल कल नहीं होता वहाँ। बस मंद मारुत का गमन ही मौन है खोता जहाँ। इस भाँति धीरे से परस्पर कह सजगता की कथा। यों दीखते हैं वृक्ष ये हों विश्व के प्रहरी यथा। |
-हरिऔध
प्रियप्रवास इस पद्य के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ हैं; अत: यह हरिगीतिका छन्द है।
बरवै क्या होते हैं?
बरवै की परिभाषा- यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में १२-१२ मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ७-७ मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अन्त में जगण होता है।
बरवै के उदाहरण-
चम्पक हरवा अंग मिलि, अधिक सहाय। जानि परै सिय हियरे, जब कुँभिलाय॥ |
-तुलसी : बरवै रामायण
(२) वर्णवृत्त
जिन छन्दों की रचना वर्णों की गणना के आधार पर की जाती है, उन्हें ‘वर्णवृत्त’ या ‘वर्णिक छन्द’ कहते हैं। वर्णवृत्तों के तीन मुख्य भेद हैं—सम, अर्द्धसम और विषम।
इन्द्रवज्रा क्या होते हैं?
इन्द्रवज्रा की परिभाषा- यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ११ वर्ण त त ज ग ग अर्थात् दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से रहते हैं।
उदाहरण
मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूँ,
भाता मुझे सो नव मित्र सा है। देखू उसे मैं नित नेम से ही, मानो मिला मित्र मुझे पुराना। |
-हरिऔध
उपर्युक्त पद्य के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्ण हैं; अत: यह छन्द ‘इन्द्रवज्रा‘ है।
उपेन्द्रवज्रा क्या होते हैं?
उपेन्द्रवज्रा की परिभाषा- यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ज त ज ग ग अर्थात् जगण, तगण, जगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्ण होते हैं।
उपेन्द्रवज्रा के उदाहरण-
बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै परन्तु पूर्वापर सोच लीजै। बिना विचारे यदि काम होगा, कभी न अच्छा परिणाम होगा। |
-हरिऔध
इस पद्य के प्रत्येक चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु के क्रम से ११ वर्ण हैं; अत: यह छन्द उपेन्द्रवज्रा हैं
वसन्ततिलका क्या होते हैं?
वसन्ततिलका की परिभाषा- यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में त भ ज ज ग गअर्थात तगण भगण, दो जगण और दो गुरु के क्रम से चौदह वर्ण होते हैं।
वसन्ततिलका के उदाहरण-
जो राजपंथ वन-भूतल में बना था, धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था। हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे। ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी। |
-हरिऔध : प्रियप्रवास
इस पद्य के प्रत्येक चरण में तगण भगण दो जगण और दो गुरु के क्रम से १४ वर्ण हैं; अत: यह ‘वसन्ततिलका‘ छन्द है।
सवैया क्या होते हैं?
बाइस से छब्बीस वर्ण तक के वर्णवृत्त ‘सवैया’ कहलाते हैं। मत्तगयन्द तथा सुन्दरी; सवैया छंद के भेद हैं।
मत्तगयन्द सवैया क्या होते हैं?
मत्तगयन्द की परिभाषा- यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ७ भगण और दो गुरु के क्रम से २३ वर्ण होते हैं।
मत्तगयन्द के उदाहरण-
सीस जटा, उर-बाह बिसाल बिलोचन लाल तिरीछी सी भौंहैं। तन सरासन-बान धरें तलसी बन मारग में सठि सोहैं। सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं। पूँछति ग्राम वधू सिय सों, कहौ साँवरे से सखि रावरे को हैं। |
-तुलसी
इस पद्य में ७ भगण और दो गुरु के क्रम से २३ वर्ण हैं; अतः यह ‘मत्तगयन्द सवैया’ छन्द है। इसके प्रथम चरण के अन्त में ‘छी सी’ का लघु उच्चारण ‘छि सि’ होगा।
सुन्दरी सवैया क्या होते हैं?
सुन्दरी सवैया की परिभाषा– यह सम वर्ण वृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में आठ सगण और एक गुरु वर्ण क्रम से २५ वर्ण होते हैं।
उदाहरण-
भुव भारहि संयुत राकस को गन जाय रसातल मैं अनुराग्यौ। जग में जय शब्द समेतहिं ‘केसव’ राज विभीषन के सिर जाग्यौ। मय-दानव नंदिनी के सुख सों मिलि कै सिव के हिय के दुःख भाग्यौ। सर दंदभि सीस गजा सर राम को रावन के सिर साथहि लाग्यौ। |
-केशव : रामचन्द्रिका
सुमुखि सवैया क्या होते हैं?
सवैया छन्द के अनेक भेद होते हैं। मदिरा सवैया इन्हीं में से एक है। ‘मदिरा‘ सवैया के आदि में एक लघुवण जोड़ने और ११-१२ वर्गों पर यति से या सात जगण और लघु गुरु से सुमुखि सवैया बनता है। सुमुखि सवैया के उदाहरण निम्नलिखित है…
“सखीन सों देत उराहनों नित्य सो चित्त संकोच सने लहिए। |
मुक्तक छन्द क्या होते हैं?
मुक्तक छन्द की परिभाषा- वह छन्द, जो अपना स्वतन्त्र अर्थ रखता हो अर्थात् अर्थ के लिए किसी अन्य छन्द पर निर्भर न हो, मुक्तक कहलाता है। इसके अनेक भेद होते हैं। इसका एक भेद दण्डक है।
दण्डक- छब्बीस से अधिक वर्णों वाले छन्द ‘दण्डक’ कहलाते हैं। दण्डक छन्द का ही एक भेद ‘मनहर’ है।
मनहर कवित्त— यह ‘दण्डक’ वृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ३१ वर्ण होते हैं। १६-१५ वर्णों पर यति होती है। अन्त में एक गुरु वर्ण होता है।
उदाहरण-
मैं निज अलिन्द में खड़ी थी सखि, एक रात, रिमझिम बूंदें पड़ती थीं घटा छाई थी। गमक रहा था केतकी का गन्ध चारों ओर, झिल्ली-झनकार यही मेरे मन भाई थी। करने लगी मैं अनुकरण स्वनूपुरों से, चंचला थी चमकी, घनाली घहराई थी। चौंक देखा मैंने, चुप कोने में खड़े थे प्रिय, माई ! मुख लज्जा उसी छाती में छिपाई थी। |
-मैथिलीशरण गुप्त : साकेत
इसके प्रत्येक चरण में ३१ वर्ण हैं और १६ तथा १५ पर यति है। यह मनहर कवित्त है। इसे मनहरण कवित्त भी कहते हैं।
आशा करता हूँ आप सभी को हिंदी व्याकरण का छंद अच्छा लगा होगा इसको आप अपने ग्रुप पर शेयर करे धन्यवाद