रस क्या हैं ? (Ras Kya Hain) सम्पूर्ण रस की व्याख्या
रस की परिभाषा – संस्कृत में रस शब्द की व्युत्पत्ति “रसस्यते असौ इति रसाः“ के रूप में की गई है अर्थात् जिसका रसास्वाद किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास आदि को पढ़ने या सुनने से एवं नाटक को देखने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं।
सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र‘ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य-दर्पण‘ में काव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है-“वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है, रस काव्य की आत्मा है, काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है।
रस के भेद (प्रकार)
रसों के आधार भाव हैं। भाव मन के विकारों को कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं—
स्थायी भाव और संचारी भाव, इन्हीं को काव्य के अंग कहते हैं।
स्थायी भाव क्या हैं ?
स्थायी भाव प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं।
एक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है।
इनकी संख्या नौ है, किन्तु कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या दस निर्धारित की है-
स्थायी भाव | रस |
रति | श्रृंगार |
हास | हास्य |
शोक | करुण |
क्रोध | रौद्र |
उत्साह | वीर |
भय | भयानक |
आश्चर्य | अद्भुत |
ग्लानि (जुगुप्सा) | बीभत्स |
निर्वेद | शान्त |
वत्सलता | वात्सल्य |
इनमें वत्सलता को श्रृंगार के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है।
रति की परिभाषा- | स्त्री-पुरुष की एक-दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते हैं। |
हास की परिभाषा- | रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है। |
शोक की परिभाषा- | प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं। |
क्रोध की परिभाषा- | असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं। |
उत्साह की परिभाषा- | मन का वह उल्लासपूर्ण वृत्ति. जिसके द्वारा मनष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है. ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति. शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है। |
आश्चर्य की परिभाषा- | अलौकिक वस्तु को देखने, सनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है। |
ग्लानिया या जुगुप्सा की परिभाषा- | किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकल वस्त को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ग्लानि (जुगुप्सा) कहलाता है। |
निर्वेद की परिभाषा- | सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है। |
वत्सलता की परिभाषा- | माता-पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई-बहन का पारस्परिक सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है। |
विभाव क्या हैं?
जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थितियाँ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं।
‘विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के दो भेद होते हैं
(1) आलम्बन विभाव– जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव‘ कहते हैं।
इसके दो भेद हैं-आश्रय और विषय।
- जिस व्यक्ति के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं उसे ‘आश्रय’ कहते हैं।
- जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण आश्रय के चित्त में रति आदि स्थायीभाव उत्पन्न होते हैं, उसे ‘विषय’ कहते हैं।
(2) उद्दीपन विभाव– स्थायी भावों को उद्दीप्त तथा तीव्र करनेवाला कारण ‘उद्दीपन विभाव‘ कहलाता है। आलम्बन की चेष्टा तथा देश-काल आदि को ‘उद्दीपन विभाव’ माना जाता है।
इस सन्दर्भ में शकुन्तला-दुष्यन्त के रतिभाव को उदाहरणार्थ लिया जा सकता है। सुन्दर, पुष्पित और एकान्त उद्यान में शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में रति भाव जाग्रत होता है। यहाँ शकुन्तला आलम्बन विभाव है और पुष्पित तथा एकान्त उद्यान उद्दीपन विभाव।
अनुभाव क्या हैं ?
आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव‘ कहलाते हैं। भावों की सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चात्वर्ती माने जाते हैं।
अनुभावों के मुख्य रूप से चार भेद किए गए हैं
- (1) कायिक अनुभाव-प्राय: शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
- (2 ) मानसिक अनुभाव-मन में हर्ष-विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
- (3) आहार्य अनुभाव-मन के भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की कृत्रिम वेश-रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
- (4) सात्त्विक अनुभाव-शरीर के सहज अंगविकारों को ‘सात्त्विक अनुभाव’ कहते हैं।
संचारी भाव क्या हैं ?
जो भाव स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करते हैं, उन सहयोगी भावों को ‘संचारी भाव’ कहा जाता है। भरतमनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्टकर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।
आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है..
निर्वेद | आवेग | दैन्य |
श्रम | मद | जड़ता |
उग्रता | मोह | विबोध |
स्वप्न | अपस्मार | गर्व |
मरण | आलस्य | अमर्ष |
निद्रा | अवहित्था | उत्सुकता |
उन्माद | शंका | स्मृति |
मति | व्याधि | सन्त्रास |
लज्जा | हर्ष | असूया |
विषाद | धृति | चपलता |
ग्लानि | चिन्ता | वितर्क |
रस के प्रकारो की व्याख्या :
श्रृंगार रस क्या हैं ?
श्रृंगार रस की परिभाषा – नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था को पहुँचकर आस्वादन के योग्य हो जाता है तो वह ‘शृंगार रस’ कहलाता है।
सहृदय के चित्त में रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है तो वह शृंगार रस का रूप धारण कर लेता है।
शृंगार रस के दो भेद हैं
(क) संयोग श्रृंगार – संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को ‘संयोग शृंगार’ कहा जाता है। इसमें संयोग का अर्थ है-सुख की प्राप्ति करना।
शृंगार रस के उदाहरण–
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥
– तुलसीदास
इस पद में स्थायी भाव ‘रति‘ है। ‘राम‘ आलम्बन, ‘सीता‘ आश्रय, नग में पड़नेवाला ‘राम का प्रतिबिम्ब उद्दीपन, ‘उस प्रतिबिम्ब को देखना’, ‘हाथ टेकना’ अनुभाव तथा ‘हर्ष’ एवं ‘जड़ता’ संचारी भाव हैं; अत: इस पद में संयोग शृंगार है।
(ख) वियोग या विप्रलम्भ शृंगार रस – एक-दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक एवं नायिका के मिलन का अभाव ‘विप्रलम्भ शृंगार’ होता है।
शृंगार रस के उदाहरण –
रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी!
-मैथिलीशरण गुप्त
इसमें स्थायी भाव ‘रति’ है। ‘यशोधरा‘ आलम्बन है। उद्धारक गौतम के प्रति यह भाव कि वे चाहें तो आवें’ उद्दीपन विभाव है।
‘मन को समझाना और उदबोधन‘ अनभाव है. ‘यशोधरा का प्रणय’ मान है तथा मति, वितर्क और अमर्ष संचारी भाव हैं; अत: इस छन्द में विप्रलम्भ शृंगार है।
हास्य रस क्या हैं ?
हास्य रस की परिभाषा – वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि की विकति को देखकर हृदय में विनोद का जो भाव जाग्रत होता है, वह ‘हास’ कहा जाता है। यही हास’ विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पष्ट होकर ‘हास्य रस’ में परिणत हो जाता है।
हास्य रस के उदहारण –
बिन्ध्य के बासी उदासी तपो ब्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी, तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥
हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे॥
इस छन्द में स्थायी भाव ‘हास‘ है। ‘रामचन्द्रजी‘ आलम्बन हैं. ‘गौतम की स्त्री का उद्धार’ उद्दीपन है। ‘मुनियों का कथा आदि सुनना’ अनुभाव है तथा ‘हर्ष, ‘उत्सुकता’, ‘चंचलता’ आदि संचारी भाव हैं।
करुण रस क्या हैं ?
करुण रस की परिभाषा – बन्धु-विनाश, बन्धु-वियोग, द्रव्यनाश और प्रेमी के सदैव के लिए बिछुड़ जाने से करुण रस उत्पन्न होता है। यद्यपि दुःख का अनुभव वियोग शृंगार में भी होता है, किन्तु वहाँ मिलने की आशा भी बँधी रहती है। अतएव शोक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से करुण रस की दशा को प्राप्त होता है।
करुण रस के उदाहरण –
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथै,खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल,
हाय रुक गया यहीं संसार,
बिना सिंदूर अनल अंगार,
वातहत लतिका वह सुकुमार,
पड़ी है छिन्नाधार !
-सुमित्रानन्दन पन्त
इन पंक्तियों में ‘विनष्ट पति’ आलम्बन तथा ‘मुकुट का बँधना, ‘हल्दी के हाथ होना’, ‘लाज के बोलों का न खलना’ आदि उददीपन हैं। ‘वायु से आहत लतिका के समान नायिका का बेसहारे पड़े होना’ अनुभाव है तथा उसमें ‘विषाद’ दैन्य’ ‘स्मति’. ‘जड़ता’ आदि संचारियों की व्यंजना है। इस प्रकार करुणा के सम्पूर्ण उपकरण और ‘शोक’ नामक स्थायी भाव इस पद्य को करुण रस-दशा तक पहुँचा रहे हैं।
रौद्र रस क्या हैं ?
रौद्र रस की परिभाषा – जहाँ विपक्ष द्वारा किए गए अपमान अथवा अपने गुरुजन आदि की निन्दा आदि से क्रोध उत्पन्न होता है, वहाँ और सोता है। इस प्रकार क्रोध नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रौद्र रस का रूप धारण कर लेता है।
रौद्र रस के उदाहरण –
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥
यहाँ अभिमन्यु के वध का समाचार सुनकर अर्जुन के क्रोध का वर्णन किया गया है। इसमें स्थायी भाव-क्रोधः आश्रय–अर्जुन; विभाव-अभिमन्यु का वध; अनुभाव-हाथ मलना, मुख लाल होना एवं तन काँपना तथा संचारी भाव-उग्रता आदि हैं।
वीर रस क्या हैं ?
वीर रस की परिभाषा – युद्ध अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए हृदय में जो उत्साह जाग्रत होता है, उससे ‘वीर रस’ की निष्पत्ति होती है। उत्साह नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग इसके प्रमुख उपकरण हैं।
वीर रस के उदाहरण –
क्रुद्ध दशानन बीस भुजानि सो लै कपि रीछ अनी सर बट्टत।
लच्छन तच्छन रक्त किए दृग लच्छ विपच्छन के सिर कट्टत॥
मार पछारु पुकारे दूहूँ दल, रुण्ड झपट्टि दपट्टि लपट्टत।
रुण्ड लरै भट मत्थनि लुट्टत जोगिनि खप्पर ठट्टनि ठट्टत॥
यहाँ पर लंका के युद्ध में रीछ-वानरों की सेना को देखकर रावण के युद्ध का वर्णन है। ‘रावण के हृदय में उत्साह’ स्थायी भाव है। ‘रीछ तथा वानर’ आलम्बन हैं। ‘वानरों की विभिन्न लीलाएँ’ उद्दीपन हैं। ‘नेत्रों का लाल होना, शत्रुओं के सिर को काटना’ आदि अनुभाव हैं। ‘उग्रता’, ‘अमर्ष’ आदि संचारी भाव हैं।
भयानक रस क्या हैं?
भयानक रस की परिभाषा – किसी भयानक अथवा अनिष्टकारी वस्तु या व्यक्ति को देखने, उससे सम्बन्धित वर्णन सुनने, स्मरण करने आदि से चित्त में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, उसे ‘भय’ कहते हैं। भय नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से भयानक रस की उत्पत्ति होती है।
भयानक रस के उदाहरण –
एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृगराय।
विकल बटोही बीच ही, पर्यो मूर्छा खाय॥
यहाँ ‘मार्ग में जानेवाले बटोही का भय’ स्थायी भाव है। ‘अजगर’ एवं ‘सिंह’ आलम्बन हैं। ‘अजगर और सिंह का, दोनों ओर से घेरना’ उद्दीपन है। ‘पथिक का विकल या मूछित हो जाना’ अनुभाव है। ‘त्रास’, ‘दैन्य’, ‘भय’, ‘अपस्मार’ आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार इस दोहे में भयानक रस की पूर्ण सामग्री विद्यमान है।
बीभत्स रस क्या हैं ?
बीभत्स रस की परिभाषा – ‘घृणित वस्तुओं को देखकर अथवा उनके सम्बन्ध में सुनकर उत्पन्न होनेवाली घृणा या ग्लानि ‘बीभत्स रस‘ की पुष्टि करती है। जुगुप्सा (घृणा) स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से बीभत्स रस का रूप ग्रहण करता है।
बीभत्स रस के उदाहरण –
सिर पर बैठो काग, आँखि दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत॥
गिद्ध जाँघ कह खोदि-खोदि के मांस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खान बिचारत॥
बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच, मोद मढ्यो सबको हियो।
जनु ब्रह्म-भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो।
यह श्मशान का दृश्य है। पशु-पक्षियों की क्रीडाओं को देखकर चाण्डाल-सेवारत राजा हरिश्चन्द्र के मन में जो घृणा पैदा हो रही है, वही ‘स्थायी भाव’ है। ‘शवों की हड्डी’ त्वचा आदि ‘आलम्बन’ विभाव हैं। कौओं का आँख निकालना, सियार का जीभ को खींचना. गिद्ध का जाँघ खोद-खोदकर मांस नोचना तथा कत्तों का उँगलियों को काटना उददीपन’ है। राजा हरिश्चन्द्र द्वारा इनका वर्णन ‘अनुभाव’ है। मोह, स्मृति आदि ‘संचारी भाव’ हैं। इस प्रकार यहाँ बीभत्स रस है।
अद्भुत रस क्या हैं?
अद्भुत रस की परिभाषा – विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तओं को देखकर हृदय में विस्मय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं। विस्मय नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अदभत रस की दशा को प्राप्त होता हैं ।
अद्भुत रस के उदाहरण –
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मति भ्रम मोरि कि आन बिसेखा॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन गुदि चरनन सिर नावा॥
देखरावा मातहि निज, अद्भुत रूप अखण्ड।
रोम-रोम प्रति लागे, कोटि-कोटि ब्रह्मण्ड॥
बालक राम को एक साथ ही दो स्थानों पर देखकर माता कौशल्या के मन में उत्पन्न होनेवाला आश्चर्य ही ‘स्थायी भाव’ है। यहाँ राम ‘आलम्बन’ हैं। राम का एक साथ दो स्थानों पर दिखाई देना तथा उनका अखण्ड रूप उद्दीपन है। कौशल्या का पुलकित होना, वचन न निकलना तथा आँखें बन्द करके राम के चरणों में सिर झुकाना ‘अनुभाव’ हैं। भ्रान्ति, त्रास, वितर्क आदि ‘संचारी भाव’ हैं।
शान्त रस क्या हैं ?
शान्त रस की परिभाषा – तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। जहाँ न दुःख है न सुख, न द्वेष है न राग और न कोई इच्छा है, ऐसी मनोस्थिति में उत्पन्न रस को मुनियों ने ‘शान्त रस’ कहा है। इस प्रकार निर्वेद नामक स्थायी भाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।
शान्त रस के उदाहरण –
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगौ।
श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो॥
जथालाभ सन्तोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित-निरत-निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो॥
दस पद में तलसीदास ने श्री रघुनाथ की कृपा से सन्त-स्वभाव ग्रहण करने की कामना की है। संसार से पर्णविमिन और निवेद ‘स्थायी भाव’ हैं। राम की भक्ति ‘आलम्बन’ है। साधु-सम्पर्क एवं श्री रघुनाथ की कृपा ‘उद्दीपन’ हैं। हरी सन्तोष तथा अचिन्ता ‘अनुभाव’ हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि ‘संचारी भाव’ हैं। इस प्रकार यहाँ शान्त रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।
वात्सल्य रस क्या हैं ?
वात्सल्य रस की परिभाषा – पुत्र, बालक, शिष्य, अनुज आदि के प्रति रति का भाव स्नेह कहलाता है। यह रस वत्सल नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से सम्पुष्ट होता है।
वात्सल्य रस के उदाहरण –
तन की दुति स्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरें।
अति सुन्दर सोहत धूरि भरे छवि भूरि अनंग की दूरि धरैं।
दमकैं दतियाँ दुति दामिनि ज्यौं किलक कल बाल-बिनोद करें।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी मन-मन्दिर में बिह॥
यहाँ स्थायी भाव ‘स्नेह‘ (वत्सलता) है। राम और उनके भाई ‘आलम्बन’ हैं। उनके धूल-धूसरित शरीर, बाल-क्रीडाएँ, छोटे-छोटे दाँतों का चमकना आदि ‘उद्दीपन’ हैं। उनके बाल-विनोद से माता-पिता का आनन्दित होना ‘अनुभाव’ है। हर्ष और गर्व ‘संचारी भाव’ हैं।
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